जीडीपी चमकदार पर आम लोग रोजमर्रा के घरेलू खर्च पूरे करने में ही परेशान
देश की उच्च जीडीपी विकास दर के बावजूद एक आम भारतीय उपभोक्ता अभी खर्च करने को तैयार नहीं है। उच्च आय वर्ग महामारी और उसके बाद भी खर्च करने में आगे है, जबकि मध्यवर्ग के लोग खर्च से बच रहे हैं, कहीं उनकी आय घटी है, तो कहीं अनिश्चितता का आलम है। आगे देश की तेज विकास दर को तभी कायम रखा जा सकता है, जब मध्यवर्ग के उपभोक्ताओं को खर्च के लिए प्रेरित किया जाए।
आम भारतीय उपभोक्ता खर्च करने के मामले में अभी भी अनिश्चय और हिचक के शिकार हैं। महंगाई उन्हें डस रही है। वो रोजमर्रा के घरेलू खर्च पूरे करने में ही परेशान हो रहे हैं। शायद बीते समय में उनकी आय नहीं बढ़ी है और ऐसे लोग भी हैं, जो कोरोना महामारी के आर्थिक प्रहार के असर से अभी तक नहीं उबरे हैं। दूसरी ओर, यह भी सच है कि देश की विकास दर ऊंचाई पर है। सावधान रहना चाहिए, अगर उपभोक्ताओं को खर्च के लिए प्रोत्साहित नहीं किया गया, तो देश की तेज विकास दर कायम नहीं रह पाएगी।
भारत की उच्च विकास दर और लगातार कमजोर दिखती खर्च करने की भावना परस्पर बेमेल लगती है। एक औसत घर में रहने वाले औसत भारतीय उपभोक्ता के मनोविज्ञान की व्याख्या के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता व्यवहारवादी अर्थशास्त्री रिचर्ड थेलर के कथन का सहारा लिया जा सकता है। उन्होंने लिखा था कि कुछ बेचने का अवसर देने से उतना कष्ट नहीं होता है, जितना किसी के बटुए से पैसा निकालने में होता है।
अभी जारी की गई जीडीपी विकास दर एक ऐसी भारतीय अर्थव्यवस्था को पेश कर रही है, जो चमकदार दिखाई देती है। ऐसे में, आम भारतीय उपभोक्ताओं को कोई चीज खरीदने के लिए भुगतान करने में इतना क्यों दर्द हो रहा है?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और उनकी टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती लोगों में खर्च करने की भावना को फिर जगाना है। खरीद की भावना कमजोर बनी हुई है। वैसे उपभोक्ता भावनाओं को ठीक से मापना मुश्किल है। इस भावना को वैसे नहीं मापा जा सकता, जैसे कोई एक महीने में दोपहिया वाहनों की बिक्री या फिल्मों के बॉक्स-ऑफिस संग्रह को माप सकता है। हालांकि, नीति निर्माता जानते हैं कि उपभोक्ता भावनाएं वास्तविक और निर्णायक भूमिका निभाती हैं।
चूंकि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 58-60 प्रतिशत खपत के कारण है, अत 7 प्रतिशत की विकास दर को बनाए रखना तब तक असंभव होगा, जब तक कि भारतीय उपभोक्ता उदारतापूर्वक खर्च नहीं करेंगे। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के लिए समस्या यह है कि भारतीय उपभोक्ता अभी भी पैसा खर्च करने को तैयार नहीं हैं, खासकर उन वस्तुओं और सेवाओं पर, जिन्हें दैनिक उपभोग की नहीं माना जाता है।
सी-वोटर द्वारा 28 और 29 अगस्त को रैंडम सैंपलिंग का उपयोग करके किया गया एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण इसकी पुष्टि करता है। सर्वेक्षण में करीब 2,000 उत्तरदाताओं को शामिल किया गया। पूछे गए कुछ प्रश्न पिछले सर्वेक्षणों (नवंबर 2021, जनवरी और जून 2022) में भी थे।