पूर्णिया जिले के कई वीरों ने सीने पर खायी थीं अंग्रेजों की गोलियां
बापू के आह्वान पर इसी दिन पूर्णिया में भी रुपौली के टीकापट्टी स्थित कारी कोसी के तट पर पूर्णिया में नमक आंदोलन का बिगुल फूंका गया था.
स्वतंत्रता संग्राम में पूर्णिया का आंदोलनात्मक सफर गौरवमयी रहा है, पर कई वीर सपूतों की अनकही कहानी अभी भी दबी पड़ी है. यह विडंबना है कि गुलामी की जंजीरों से देश को मुक्त कराने के लिए जिन लोगों ने तन-मन और धन न्योछावर किये, जेल की यातनाएं सहीं और हंसते-हंसते सीने पर गोलियां झेलीं उनकी यादें गुमनामी के अंधेरों में भटक रही हैं. वैसी शख्सियतों को हम सबने विस्मृत कर दिया है, जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में अंग्रेजों के दांत खट्टे किए. आलम यह है कि नयी पीढ़ी के लोगों को ऐसी शख्सियतों के बारे में कुछ भी पता नहीं है. कोई ऐसा मंच भी नहीं कि नयी पीढ़ी को उनके बारे में बताये. नयी पीढ़ी को यह बताने की जरूरत है कि आजादी की लड़ाई में अपने पूर्णिया की भी अहम भूमिका रही है.
जब नमक आंदोलन से जल उठा था पूरा पूर्णिया…
12 मार्च 1930. ब्रिटिश राज के एकाधिकार के खिलाफ बापू ने साबरमती में नमक आंदोलन की नींव डाली थी. उनके आह्वान पर इसी दिन पूर्णिया में भी रुपौली के टीकापट्टी स्थित कारी कोसी के तट पर पूर्णिया में नमक आंदोलन का बिगुल फूंका गया था. पूर्णिया के अशर्फी लाल वर्मा अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ इस आंदोलन में उभर कर आये थे. अचानक हुए इस आंदोलन से अंग्रेजी हुकूमत के अफसरान परेशान हो उठे. अशर्फी लाल वर्मा और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारी के लिए मोर्चाबंदी शुरू हो गयी. पर, वे अपने साथियों के साथ अंग्रेजों को हमेशा छकाते हुए जिले में नमक आंदोलन की अलख लगातार जगाते रहे. बोकाय मंडल, अनाथकांत बसु, केएल कुंडू, सुखदेव नारायण सिंह, गोकुल कृष्ण राय, सत्येंद्र नाथ राय, हर लाल मित्रा आदि ने हाल ही में मिलकर जिला कांग्रेस कमेटी का गठन किया था. जैसे ही बापू ने साबरमती से नमक आंदोलन शुरू किया सभी इससे जुड़ गये और इस आंदोलन को सफल बनाया. आंदोलन सफल होने पर अशर्फी बाबू ने चैन की सांस लेनी शुरू ही की थी कि अंग्रेज पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उन्हें एक वर्ष के कारावास की सजा सुनायी गयी. 1931 में वह हजारीबाग जेल से बाहर आये. बाद में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस यहां आये थे, तो उनके स्वागत का जिम्मा अशर्फी बाबू को ही सौंपा गया था.
बनमनखी में उखाड़ी थीं रेल की पटरियां
स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्णिया के कई वीर सपूतों ने सक्रिय भागीदारी निभायी और आंदोलन को सशक्त किया था. सन् 1942 के आंदोलन में बनमनखी थाना क्षेत्र के दमगड़ा गांव के अनूप लाल मेहता एवं पूर्णिया काॅलेज के पूर्व प्राचार्य डाॅ राजीव नंदन यादव के पिता हरिकिशोर यादव का उल्लेखनीय योगदान रहा है. अनूप लाल मेहता के नेतृत्व में बनमनखी तथा आसपास की रेल पटरियां उखाड़ डाली गयी थीं और विशाल जनसमूह ने थाने को कब्जे में लेकर वहां तिरंगा फहरा दिया था. इसके लिए उन्हें फांसी की सजा सुनायी गयी थी. पर, बाद में उन्हें हाइकोर्ट ने बरी कर दिया था.
जिंदा जला दिये गये थे तीन अंग्रेज अफसर
25 अगस्त, 1942 की घटना भी कुछ ऐसी ही थी. इस दिन आंदोलनकारियों ने न केवल रुपौली थाने को अपने कब्जे में ले लिया था, बल्कि तीन अंग्रेज अफसरों को भी जिंदा जला दिया था. इस आंदोलन की अगुवाई सरसी के नरसिंह नारायण सिंह मुख्य रूप से कर रहे थे. इस हकीकत का जिक्र पूर्व मंत्री एवं स्वतंत्रता सेनानी स्व कमलदेव नारायण सिन्हा के संस्मरण में आया है, जो एक पुस्तक के रूप में है. इस आंदोलन के दौरान धमदाहा में अंग्रेजों ने 25 आंदोलनकारियों को गोलियों से भून डाला था, जबकि बनमनखी में चार लोग अंग्रेजों की गोली के शिकार हुए थे. पुराने पूर्णिया जिले के कटिहार थाने में तिरंगा फहराने के दौरान ध्रुव कुंडू को अंग्रेजों ने गोली मार दी थी. इस तरह तत्कालीन पूर्णिया जिले के 51 लोग देश को आजाद कराने के दौरान शहीद हुए थे.
यादें जो रह गयीं शेष
51 लोगों ने देश को आजाद कराने के दौरान दी थी शहादत
24 अगस्त, 1942 को पूर्णिया जेल में बंदियों पर चली थीं लाठियां
25 अगस्त, 1942 को आंदोलनकारियों ने रुपौली थाने पर किया था कब्जा
03 अंग्रेज अफसरों को आजादी के दीवानों ने जिंदा जला दिया था
25 आंदोलनकारियों के सीने अंग्रेजों ने धमदाहा में कर दिये थे छलनी
04 आंदोलनकारी बनमनखी क्षेत्र में हो गये थे अंग्रेजों की गोली के शिकार
26 अगस्त, 1942 को सतीनाथ भादुड़ी भेजे गये थे जेल
1918 में पुण्यानंद झा अंग्रेजों की नौकरी छोड़ आंदोलन में कूद पड़े थे
1936 के अवज्ञा आंदोलन में उभर कर आये डाॅ किशोरी लाल कुंडू
1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में डाॅ लक्ष्मी नारायण सुधांशु गये थे जेल
1930 में टीकापट्टी नदी किनारे नमक बना फूंका गया था आंदोलन का बिगुल
1931 में स्वराज आश्रम में रुपौली आये थे डाॅ राजेंद्र प्रसाद
1934 में 10 अप्रैल को गांधी जी पहुंचे थे टीकापट्टी स्वराज आश्रम