साथ-साथ दिखा अली का डंडा और बजरंगबली का झंडा
कहते हैं जुल्म का कोई चेहरा नही होता, जालिम की कोई जाति नही होती और दर्द का कोई इलाज नहीं होता। मगर समाज मे इंसानी रिश्ता का दीवार इतना मजबूत होता है कि उनके सामने नफ रत की सारी दीवार तिनके की तरह टूट कर बिखर जाते हैं।
फारबिसगंज में सब कुछ ऐसा ही हुआ। फारबिसगंज में चार वर्ष पूर्व मुहर्रम के जुलूस मे सरीक शरारती तत्वों और प्रदर्शन में उच्चकों के द्वारा नफरत की बीज बोने का प्रयास किया गया था उसके बाद नौवीं की जुलूस में हुई हल्की फल्की टकराव को आदि को ले प्रशासन मुहर्रम को गंभीरता से लेती रही है। इस मामले में हर वार आखिरकार जीत सामाजिकता और भाइचारगी की होती है। हलांकि हर वार मुहर्रम से पहले प्रशासन की ओर से जोरदार कसरत की जाती है और हर मौर्च से निपटने की तैयारी की जाती है। इन सबके बीच स्थानीय दोनों ही समाज के लोगों को यह नागवार गुजरता है कि मुट्ठी भर लोगों के कारण ना केवल सामाजिक सदभाव विगड़ने की स्थिति मे आ जाती है वल्कि यहां कि ख्याति पर भी अंगुली उठने लगाता है। एक खास बात कि इन सारी परिस्थितियों के बीच दोनों समुदाय के लोगों के बीच महरुम ताहिर अंसारी बर्बस याद आ जाते हैं क्योंकि उनके रहते फारबिसगंज मे ऐसी परिस्थित की महक कभी नही आयी।
इसी के साथ यह संशय भी दूर हो गया कि भविष्य में धार्मिक आयेाजन मे नफरत की दीवार का कोई स्थान नही। इस कार्यक्रम को लेकर ताजिया जुलूस से पहले कई दौर की बैठके आयोजित होती रही और व्यवस्था को पुख्ता करने की दिशा में कारगर कदम उठाए जाते रहे।
जानकारो की माने तो सबसे ज्यादे धन्यवाद के पात्र वे नौजवान व जुलूस मे शामिल उत्साहित लोग रहते है जो अपनी जिम्मेवारी को समझते है और एक एतिहासिक उदाहरण पेश करते हैं। यही वजह है कि ऐसे मौके पर जब जुलूस मे साथ साथ दिखता है अली का डंडा और बजरंगवली का झंडा तो शहरवासियो क ा सीना फक्र से चौरा हो जाता है। यह परिदृश्य उन शरारती तत्वों के मुह पर तमाजा के समान होता है जो शांति मे खलल पैदा करने का असफल प्रयास करते हैं।
स्रोत-हिन्दुस्तान